चैत्रा का महीना शुरु होने के साथ मौसम में परिवर्तन देखा जा सकता है। भिन्न-भिन्न फूलों की खुशबु से वातावरण सुगंधित होता है। वैसे तो नववर्ष के उपलक्ष्य में पूरे भारत के अलग-अलग राज्य ये नये साल का स्वागत करने के लिए लोक पर्व या लोक त्योहार बना है। लेकिन धीरे-2 हमारे सांस्कृतिक लोक पर्व लुप्तता कगार पर हैं। हर राज्य प्रकृति को धन्यावाद देने के लिए मान्यताओं लोक कहानियों को आधार बनाते हैं। इस नये साल पर सोनचिरैया आपको प्रकृति की खूबसूरती की चादर ओढ़े उत्तराखण्ड के बारे में बतायेगी। उत्तराखंड अपनी खूबसूरती पहाड़ियों, वादियों, झीलों, ऊंचे-ऊंचे पहाड़ नदियों व खूबसूरती से भरे हिमालय के लिए जाना जाता है। उत्तराखंड में प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले अनगिनत उपहारो के बदले, प्रकृति को ध्न्यवाद देने के लिए हर ऋतु में लोक पर्व मनाये जाते हैं। वैसे फूलदेई उत्तरखंड के चैत्र के प्रथम दिवस को मनाया जाता है। फूलदेई लोकपर्व भारतीय संस्कृति के अस्तित्व को सम्भाले हुए है। तथा पहाड़ की परंपराओं को भी बनाये रखे है। इस लोकपर्व की बहुत मान्यता है। फूलदेई को फूल सक्रांति भी कहते हैं। जिसका सीधा संबंध प्रकृति से है।
चैत्रा महीने की शुरूआत होते ही चारों तरफ हरियाली होती है, पहाड़ फूल की चादर ओढ़ लेता हैं नये-नये प्रकार के फूल खिलने लगते हैं, तथा खेतों में सरसो खिलने लगते हैं। और पेड़ो पर नये-नये फूल आने लगते हैं। नव वर्ष के आगमन पर और बसंत के इस मौसम में खुमानी, पुलम, आडू, प्यूली, ग्वीयोल, किनगोड, हिसार, बुरान प्रमुख रूप से हैं। इसके खिलने की भीनी-भीनी खुशबु से पेड़ पहाड़ वासी नये उमंग और जोश के साथ नववर्ष का स्वागत करते हैं।
फूलदेई पर्व को मनाने के लिए काफी लोक मान्यतायें प्रचलित है। ज्योतिष के अनुसार यह पहाड़ी परंपरा बेटियों की पूजा, परिवार की समृद्वि का प्रतीक है तथा औषधि संरक्षण के रूप में भी मनाया जाता है, क्योंकि प्राकृतिक दुर्लभ, गुणकारी रोग निवारक औषधि पहाड़ों पर ही मिलते हैं।
दूसरी लोक मान्यता है कि एक राजकुमारी का विवाह दूर काले पहाड़ के पार हुआ था। वहाँ उसे अपने पीहर की बहुत याद आती थी, राजकुमारी की सास उसे अपने पीहर नही जाने देती थी। राजकुमारी के हजार गुहार लगाने के बाद भी उसकी सास राजकुमारी को पीहर नहीं जाने देती। अपने पीहर को याद करते-करते राजकुमारी की मृत्यु हो जाती है। राजकुमारी के ससुराल वाले राजकुमारी को उसके पीहर के पास ही गाड़ा देते हैं। राजकुमारी की मृत्यु के कुछ दिनो पश्चात उसी स्थान पे पर जहाँ राजकुमारी को गाड़ा जाता हैं पीले रंग के फूल खिल जाते हैं। उस फूल को ‘फयोली’ का नाम दिया गया, तभी से राजकुमारी की याद में फूलदेई का लोकपर्व मनाया जाता है।
तीसरी मान्यता शिव के कैलाश की है। पुराणों में वर्णित है कि शिव की अपनी तपस्या में लीन होने के कारण कई वर्ष बीत गये जिससे माता पार्वती व शिवगण तथा नन्दी भी व्याकुल होने लगे। माता पार्वती ने देखा कैलाश में पहली बार पीले रंग के बहुत सारे खूबसूरत फूल खिले हैं। यह देख माता पार्वती ने शिव की तंद्रा तोड़ने का उपाय सूझा, उन्होंने सारे शिवगण को पीले फूलों का पीताम्बरी जामा पहनाकर अबोध बच्चों का रूप दे दिया, और बहुत सारी खुशबूदासर पहाड़ी फूेंल शिव को अर्पित किया और साथ ही साथ गाने लगे।
फूलदेई क्षमा देई, भर अंकार तरे द्वार आये महाराजा।
फूलदेई को मनाने के तरीके समय के साथ बदल गये हैं। इस लोकपर्व को मुख्यतः छोटे बच्चे निभाते हैं। छोटे-छोटे बच्चे उठकर फयूली, बुरांश, बालिंग और कचनार जैसे जंगली फूल जंगल या खेतों से इकट्ठा करते हैं। सबसे पहले इन फूलों को देवी देवताओं पर अर्पित करते हैं।इन फूलों से रिंगाल एक प्रकार की लकड़ी की डोली जिसे ‘‘धोधा माता की डोली भी कहते हैं, उसको सजाया जाता हैैं। फिर ये घोघा माता की डोली में फूल को रखकर गांव की हर घर की देहरी दरवाजे पर जाते हैं। उन फूलों से देहरी का पूजन करते हैं। और सजाते भी हैं। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता हैं यह पर्व कहीं 8 दिन का तो कहीं पूरे चैत्र मास चलता हैं बच्चे देहरी की पूजन करते समय एक लोकगीत गाते हैं।
फूलदेई, छम्मा देई, ,देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार।
अर्थ:
फूलदेई-देहली फूलों से भरपूर और मंगलाकारी हो
छम्मा देई-देहली, क्षमाशील अर्थात सबकी रक्षा करे।
वैणी द्वार-घर सबके लिए सफल हो
भारि आकार-सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो।
देहली पूजन के फलस्वरूप हर घर के मालिक बच्चो को चावल, गुड़ भेंट उपहार देते हैं। जिससे ये छोटे-छोटे बच्चे बहुत प्रसन्न होते हैं। और गांव के हर देहली का पूजन कर उपहार बटोरते हैं। फूलदेई के दिन एक मुख्य प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है जिसे सयेई कहते हैं। फूलदेई के दिन से ऋतुरेैेण और चैेती गायन की शुरूआत होती है। ढोल दमाऊ बजाने वाले लोग जिन्हें बाजगी, औली या ढोली कहा जाता है। ये गाँव के हर घर के आंगन में जाकर चैती गायन करते हैं। घर के मुखिया द्वारा उन्हें चावल, आटा अन्य अनाज और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।
फूलदेई लोकपर्व प्रकृति और मनुष्य के बीच मधुर संबंधों को दर्शाता है। जहाँ प्रकृति बिना कुछ कहे इंसान को अनेक उपहारों से भर देती हैं और उसके बदले में प्रकृति को धन्यवाद उसी के दिये हुए इस प्राकृतिक रंग बिरंगे फूलों से देहली सजाकर किया जाता है। मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा पहाड़ी क्षेत्र अपनी संस्कृति को लेकर काफी सजग रहे लेकिन अब पहाड़ों में भी गांव के गांव घरो में ताले लटके हैं। घर से दूर कोई नही जाना चाहता लेकिन जरूरत सब करवाती हैं सोनचिरैया बस लोकपर्व के माध्यम से बताना चाहती है आप कहीं भी रहें लेकिन अपनी संस्कृति को नहीं भूलें तो आने वाली पीढ़ियां अपने अस्तित्व को भूल जायेंगी जो हमारी संस्कृति हो इसलिये संस्कृति या संस्कारों का हस्तांतरण जरूरी है।